Sunday, 26 July 2015

Goga Ji First Phase: गोगा जी पहला अध्याय

श्री गोगा महापुराण पहला पाठ 

राजा गंगाराव का अप्सरा उर्वसी के साथ विवाह 

कहते हैं के सातवी शताब्दी के आस पास भारत वर्ष में मरुभूमि को राजधानी राजस्थान प्रान्त में संहार के रजा गंगाराव चौहान राज्य करते थे रजा बहुत ही सुंदर हस्ठ पुष्ठ शरीर अस्त्र सस्त्र विद्या में निपुण अचूक निशानेबाज थे साथ ही परम दयालु न्यायी और शिकार खेलने के शौकीन थे सेना भी काफी बड़ी थी और ईश्वर कृपया से खजाना भी भरपूर था परन्तु औलाद न होने के कारण राजा रानी बड़ी दुखी थे ये राजपाट धन दौलत किस काम आयेगा
एक दिन रजा शिकार खेलता हुना वन में दूर चला गया और रजा के साथी मंत्री अहेलकर आदि पीछे छुट जाने और प्यास लगने के कारण बेचैन हो गया पानी कहाँ से मिले? राजा ने चारो तरफ नजर घुमाई तो शिव वन और पेड़ पोधो के कुछ दिखाई न दिया राजा गंगाराव ने निराश होकर उपर के तरफ निगाह उडत क्र खा "हे प्रभु तेरा ही असर है इतना कहते रजा क्या देखता है के बहुत सरे पक्षी एक जगह ही इकठे आकाश में मन्द्र रहे हैं पक्षियों को उड़ता देखकर रजा गंगाराव को ढाडस बंधी कि जहाँ ये पक्षी मंडरा रहे हैं वहन पानी अवश्य होना चाहिए 
ऐसा विचार मन में उठते ही राजा गंगाराव ने उसी तरफ अपना घोडा बढ़ा दिया और चंद घडियो में अपने लक्ष्य के पास जा पहुंचा रजा गंगाराव क्या देखता है कि अक सुंदर सरोवर बना है उसी के उपर पक्षी मंडरा रहे हैं और इंद्र लोक कि चारो अप्सराये एक से एक बढकर सुंदर जिनके चेहरों के चमक चन्द्रमा से बढ़ चढ़ कर थी जवानी में दीवानी एक दुसरे के मुंह पर छिठें मार रही हैं और हंसनी के समान हँस हँसकर दुहरी हो रही हैं उनके कपड़े पास ही सरोवर के निकट धरे थे 
राजा गंगाराव अप्सराओ को देखकर उनमे सबसे छोटी अप्सरा थी उस पर मोहित हो गया अप्सराओ को अपने जाल में फांसने के लिए सुने विचार किया ये सब कि सब सरोवर में स्नान क्र रही हैं अगर में इनके वस्त्रो का हरन क्र लूं तो मेर मनोकामना पूर्ण हो सकती है राजा गंगाराव इस प्रका अपनी मनोइछा पूर्ति का उपय विह्कार कर बड़ा खुश हुआ और परमपिता परमेश्वर का ध्यान क्र धोदे को एक पेड़ से बंधकर उसे घास कहाँ एमें लगा दिया तथा स्वयं पेड़ो कि आढ़ लेकर धीरे-२ सरकता हुआ सरोवर के निकट जा पहुंचा जहाँ पर अप्सराओ के वस्त्र रखे हुए थे 
राजा गंगाराव ने अपने हाथ बढ़कर चारो अप्सराओ के वस्त्र उठा लिए जैसे ही रजा गंगाराव ने अपनी पीठ मोड़ी अप्सराओ कि नजर रजा कि बगल में दबे अपने वस्त्रो पर पड़ गयी यह देखकर उनकी निचे कि साँस निचे और उपर कि उपर रह गयी वह हंसी दिल्लगी भूल गयी उन्होंने अपना सारा जिस्म सरोवर के पानी में छिपा लिया सिर्फ गर्दन पानी से बाहर रख कर गिडगिडाती हुई प्रार्थना करने लगी राजा गंगाराओ से बड़ी अप्सरा जिसका नाम तिलोत्मा था दोनों हाथ जोडकर बोली हे राजन हम चारो इन्द्रलोक कि अप्सराए हैं और यहाँ सरोवर के ठंडे स्वच्छ जल में स्नान करने आई थी आप सब के वस्त्र ले जा रहें हो आप विचारो के हमे बिना वस्त्रो के जल से बाहर किस प्रकार निकलेंगी और बिना वस्त्रो के किस प्रकार इन्द्रलोक जायंगी हे राजन हम अबलाओ कि लाज आपके हाथ है आप हमारे वस्त्र हमें तुरंत दें कि दया करें 
रजा गंगाराव बोले बात तो तुम्हारी ठीक हा किसिं क्या ठीक खा 
बिना विचारे जो करे, सो पीछे पछताए 
काम बिगड़े आपनी, जग में हो हंसाये
सो हे अप्सराओ कि रानी गिडगिडाने से काम नही चलता अगर गिडगिडाने से काम बन जाता तो मैं भी अपनी मनोकामना पूरी कर लेता वस्त्र हरण करने कि जरूरत ही मुझे क्यों पढती अच्छा आप अपना नाम तो बताओ 
बड़ी अप्सरा लजाती हुई बोली हे राजन मेरा नाम तिलोत्मा बाकी तीनो अप्सराएँ भी रजा गंगाराव के खूबसूरत चेहरों को तक तकी बाँध कर निहार रही थी छोटी अप्सरा का सबसे बूरा हाल था उसकी तो पलक झपकती ही नही थी ये सब बाते राजा गंगाराव से छिपी नही रही अप्सरा के मुँह से तिलोत्मा नाम सुनकर राजा गंगाराव बोले "तुम्हारी बोली बड़ी प्यारी है और तुम ही इन सब कि रानी मालूम होती हो मैं सुना है कि इंदलोक कि अप्सराएँ नाचने गाने में बड़ी निपुण होती हैं क्या ये बात ठीक है? बड़ी अप्सरा तिलोत्मा बोली "पहले आप हमें हमारे वस्त्र पहनने के बाद आपको गाना भी सुनवा दिया जायेगा 
बड़ी अप्सरा तिलोत्मा कि बात सुनकर रजा गंगाराव बोले "इतनी अप्सराओ के बदले सिर्फ एक गाना नही सुनना है आपको हमारी बात नही माननी है तो हम भी आपकी बात क्यों मानने लगे? अगर तुम्हें अपने वस्त्र लेकर अपनी लाज बचानी होती और ठंड से बचना होता तो हमारी बात मानकर फैसला क्र लेती गाना क्या हमें नही आता आप जैसा भी राग सुनना चाहे और जितनी तरह का मैं तुम्हे सुना सकता हूँ अच्छा, जब हमारा तुम्हारा कोई फैसला होता नजर नही आता तो मैं चलता हूँ" 
राजा गंगाराव कि बातें सुनकर चारो अप्सराओं को क्म्पक्म्पी आ गयी उनकी आँखों के आगे अँधेरा छा गया वे चारो ही गिडगिडाकर एक साथ बोली "कृपया कर हमें बताये कि हमारे वस्त्र देने में आपकी क्या शर्त है और आप हमसे क्या चाहते हो? हमारे बीएस कि जो भी बात होगी हम सभी वायदा करती हैं कि उसे जरूर मान लेंगी"
अप्सराओं कि घबराहट देखकर राजा गंगाराव बोले अपने वायदा किया है के आप मेरी शर्त मन लेंगी तो मैं आपको बताने में हर्ज नही समझता मैं आपसे सिर्फ ये चाहता हूँ के आप में जो ये सबसे छोटी अप्सरा है इन्सकी कजरारी आँखों ने मेरे ह्रदय को छलनी कर दिया है में चाहता हूँ की एक तो इनका नाम मुझे बताया जाय दुसरे मैं इन्सके साथ शादी करके इन्हें अपनी महारानी बनाना चाहता हूँ मेरी सिर्फ ये ही इच्छा है अगर आप मेरी मनोकामना कि पूर्ति क्र दें तो मुझे आप लोगो के वस्त्र देने से कटी इंकार नही है "
राजा गंगाराव के बात सुनकर बड़ी अप्सरा तिलोत्मा बोली हे राजन ये जो सबसे छोटी अप्सरा है इसका नाम उर्वसी है औरे ये नाचने में कमल करती हैं ये सारे इन्द्रलोक कि सां हैं इसे हम आपके पास छोड़ जायेंगे तो राजा इंद्र हमें जिन्दा ही जमीन में गडवा देंगे हाँ हम तीनो में से आप जिसे कहें वो आपके पास रुक जाये इसे तो आप हमारे साथ चलकर और अपना गाना सुनकर रजा इंद्र को खुश करके ही उनसे मांगकर ला सकते हैं 
अप्सरा तिलोत्मा कि बात सुनकर रजा गंगाराव ने चारो अप्सराओं को कसम धर्म उठाने के बाद स्वर्गलोक में उनके साथ जाने कि उनकी उपरोक्त शर्त मान ली और चारो अप्सराओं का वस्त्र उनके सुपुर्द कर दिए जिन्हें उन्होंने रजा के मुँह फेर लेने पर एक दुसरे कि ओट करके होशियारी से अपने अपने वस्त्र पहन लिए चारो ने अपने उडन खटोले पर बैठकर अपने वचन के अनुसार रजा को भी अपने साथ में बिठा लिया 
राजा गंगाराव कि खुसी का ठिकान नही था वः अपनी तक़दीर को देख परमात्मा का धन्यवाद करके प्रार्थना करने लगा कि हे दिन बन्धु जहाँ इतनी दया कि है कि जीते जी स्वर्गलोक जा रहा हूँ इतनी दया और करना कि स्वर्गलोक का रजा इंद्र मेरा गाना सुनकर प्रश्न हो जाय और इस अप्सरा उर्वशी को मेरी रानी बनने को मेरे सुपुर्द कर दें" इसी तरह राजा गंगाराव विचारमग्न उडन खटोले में बैठा जा रहा था कि स्वर्गलोक के सुंदर दरवाजे पर जाकर उडन खटोला रुका चारो अप्सराओं और रजा गंगाराव को उतर कर उडन खटोला अपने स्थान पर खूंटी पर जाकर टंग गया 

आगे कहानी जल्दी ही ...............

Jahar Veer Goga ji (गोगा जी) Katha

गोगाजी महाराज( सिद्धनाथ वीर गोगादेव)
गोगाजी राजस्थान के लोक देवता हैं जिन्हे जाहरवीर गोगाजी के नाम से भी जाना जाता है । राजस्थान के हनुमानगढ़ जिले का एक शहर गोगामेड़ी है। यहां भादव शुक्लपक्ष की नवमी को गोगाजी देवता का मेला भरता है। इन्हे हिन्दु और मुस्लिम दोनो पूजते है ।

वीर गोगाजी गुरुगोरखनाथ के परमशिस्य थे। चौहान वीर गोगाजी का जन्म विक्रम संवत 1003 में चुरू जिले के ददरेवा गाँव में हुआ था सिद्ध वीर गोगादेव के जन्मस्थान, जो राजस्थान के चुरू जिले के दत्तखेड़ा ददरेवा में स्थित है। जहाँ पर सभी धर्म और सम्प्रदाय के लोग मत्था टेकने के लिए दूर-दूर से आते हैं। कायम खानी मुस्लिम समाज उनको जाहर पीर के नाम से पुकारते हैं तथा उक्त स्थान पर मत्था टेकने और मन्नत माँगने आते हैं। इस तरह यह स्थान हिंदू और मुस्लिम एकता का प्रतीक है।
Goga ji, Jahar Veer Goga ji, Jahar Veer Goga


मध्यकालीन महापुरुष गोगाजी हिंदू, मुस्लिम, सिख संप्रदायों की श्रद्घा अर्जित कर एक धर्मनिरपेक्ष लोकदेवता के नाम से पीर के रूप में प्रसिद्ध हुए। सन्न 1155 में गोगा जाहरवीर का जन्म राजस्थान के ददरेवा (चुरू) चौहान वंश के राजपूत शासक जैबर (जेवरसिंह) की पत्नी बाछल के गर्भ से गुरु गोरखनाथ के वरदान से भादो सुदी नवमी को हुआ था। जिस समय गोगाजी का जन्म हुआ उसी समय एक ब्राह्मण के घर नाहरसिंह वीर का जन्म हुआ। ठीक उसी समय एक हरिजन के घर भज्जू कोतवाल का जन्म हुआ और एक भंगी के घर रत्ना जी भंगी का जन्म हुआ। यह सभी गुरु गोरखनाथ जी के शिष्य हुए। गोगाजी का नाम भी गुरु गोरखनाथ जी के नाम के पहले अक्षर से ही रखा गया।  यानी गुरु का गु और गोरख का गो यानी की गुगो जिसे बाद में गोगा जी कहा जाने लगा। गोगा जी ने गूरू गोरख नाथ जी से तंत्र की शिक्षा भी प्राप्त की थी।

चौहान वंश में राजा पृथ्वीराज चौहान के बाद गोगाजी वीर और ख्याति प्राप्त राजा थे। गोगाजी का राज्य सतलुज सें हांसी (हरियाणा) तक था। जयपुर से लगभग 250 किमी दूर स्थित सादलपुर के पास दत्तखेड़ा (ददरेवा) में गोगादेवजी का जन्म स्थान है। दत्तखेड़ा चुरू के अंतर्गत आता है। गोगादेव की जन्मभूमि पर आज भी उनके घोड़े का अस्तबल है और सैकड़ों वर्ष बीत गए, लेकिन उनके घोड़े की रकाब अभी भी वहीं पर विद्यमान है। उक्त जन्म स्थान पर गुरु गोरक्षनाथ का आश्रम भी है और वहीं है गोगादेव की घोड़े पर सवार मूर्ति। भक्तजन इस स्थान पर कीर्तन करते हुए आते हैं और जन्म स्थान पर बने मंदिर पर मत्था  टेककर मन्नत माँगते हैं।

आज भी सर्पदंश से मुक्ति के लिए गोगाजी की पूजा की जाती है. गोगाजी के प्रतीक के रूप में पत्थर या लकडी पर सर्प मूर्ती उत्कीर्ण की जाती है. लोक धारणा है कि सर्प दंश से प्रभावित व्यक्ति को यदि गोगाजी की मेडी तक लाया जाये तो वह व्यक्ति सर्प विष से मुक्त हो जाता है. भादवा माह के शुक्ल पक्ष तथा कृष्ण पक्ष की नवमियों को गोगाजी की स्मृति में मेला लगता है. उत्तर प्रदेश में इन्हें जहर पीर तथा मुसलमान इन्हें गोगा पीर कहते हैं।

हनुमानगढ़ जिले के नोहर उपखंड में स्थित गोगाजी के पावन धाम गोगामेड़ी स्थित गोगाजी का समाधि स्थल जन्म स्थान से लगभग 80 किमी की दूरी पर स्थित है, जो साम्प्रदायिक सद्भाव का अनूठा प्रतीक है, जहाँ एक हिन्दू व एक मुस्लिम पुजारी खड़े रहते हैं। श्रावण शुक्ल पूर्णिमा से लेकर भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा तक गोगा मेड़ी के मेले में वीर गोगाजी की समाधि तथा गोगा पीर व जाहिर वीर के जयकारों के साथ गोगाजी तथा गुरु गोरक्षनाथ के प्रति भक्ति की अविरल धारा बहती है। भक्तजन गुरु गोरक्षनाथ के टीले पर जाकर शीश नवाते हैं, फिर गोगाजी की समाधि पर आकर ढोक देते हैं। प्रतिवर्ष लाखों लोग गोगा जी के मंदिर में मत्था टेक तथा छड़ियों की विशेष पूजा करते हैं।

गोगा जाहरवीर जी की छड़ी का बहुत महत्त्व होता है और जो साधक छड़ी की साधना नहीं करता उसकी साधना अधूरी ही मानी जाती है क्योंकि मान्यता के अनुसार जाहरवीर जी के वीर छड़ी में निवास करते है । सिद्ध छड़ी पर नाहरसिंह वीर , सावल सिंह वीर आदि अनेकों वीरों का पहरा रहता है। छड़ी लोहे की सांकले होती है जिसपर एक मुठा लगा होता है । जब तक गोगा जाहरवीर जी की माड़ी में अथवा उनके जागरण में छड़ी नहीं होती तब तक वीर हाजिर नहीं होते , ऐसी प्राचीन मान्यता है । ठीक इसी प्रकार जब तक गोगा जाहरवीर जी की माड़ी अथवा जागरण में चिमटा नहीं होता तब तक गुरु गोरखनाथ सहित नवनाथ हाजिर नहीं होते।

छड़ी अक्सर घर में ही रखी जाती है और उसकी पूजा की जाती है । केवल सावन और भादो के महीने में छड़ी निकाली जाती है और छड़ी को नगर में फेरी लगवाई जाती है , इससे नगर में आने वाले सभी संकट शांत हो जाते है । जाहरवीर के भक्त दाहिने कन्धे पर छड़ी रखकर फेरी लगवाते है । छड़ी को अक्सर लाल अथवा भगवे रंग के वस्त्र पर रखा जाता है।

यदि किसी पर भूत प्रेत आदि की बाधा हो तो छड़ी को पीड़ित के शरीर को छुवाकर उसे एक बार में ही ठीक कर दिया जाता है ! भादो के महीने में जब भक्त जाहर बाबा के दर्शनों के लिए जाते है तो छड़ी को भी साथ लेकर जाते है और गोरख गंगा में स्नान करवाकर जाहर बाबा की समाधी से छुआते है । ऐसा करने से छड़ी की शक्ति कायम रहती है ।

प्रदेश की लोक संस्कृति में गोगाजी के प्रति अपार आदर भाव देखते हुए कहा गया है कि गाँव-गाँव में खेजड़ी, गाँव-गाँव में गोगा वीर गोगाजी का आदर्श व्यक्तित्व भक्तजनों के लिए सदैव आकर्षण का केन्द्र रहा है।गोरखटीला स्थित गुरु गोरक्षनाथ के धूने पर शीश नवाकर भक्तजन मनौतियाँ माँगते हैं। विद्वानों व इतिहासकारों ने उनके जीवन को शौर्य, धर्म, पराक्रम व उच्च जीवन आदर्शों का प्रतीक माना है।

जातरु (जात लगाने वाले) ददरेवा आकर न केवल धोक आदि लगाते हैं बल्कि वहां समूह में बैठकर गुरु गोरक्षनाथ व उनके शिष्य जाहरवीर गोगाजी की जीवनी के किस्से अपनी-अपनी भाषा में गाकर सुनाते हैं। प्रसंगानुसार जीवनी सुनाते समय वाद्ययंत्रों में डैरूं व कांसी का कचौला विशेष रूप से बजाया जाता है। इस दौरान अखाड़े के जातरुओं में से एक जातरू अपने सिर व शरीर पर पूरे जोर से लोहे की सांकले मारता है। मान्यता है कि गोगाजी की संकलाई आने पर ऐसा किया जाता है।


गोरखनाथ जी से सम्बंधित एक कथा राजस्थान में बहुत प्रचलित है। राजस्थान के महापुरूष गोगाजी का जन्म गुरू गोरखनाथ के वरदान से हुआ था। गोगाजी की माँ बाछल देवी निःसंतान थी। संतान प्राप्ति के सभी यत्न करने के बाद भी संतान सुख नहीं मिला। गुरू गोरखनाथ गोगामेडीके टीले पर तपस्या कर रहे थे। बाछल देवी उनकी शरण मे गईं तथा गुरू गोरखनाथ ने उन्हें पुत्र प्राप्ति का वरदान दिया और एक गुगल नामक फल प्रसाद के रूप में दिया। प्रसाद खाकर बाछल देवी गर्भवती हो गई और तदुपरांत गोगाजी का जन्म हुआ। गुगल फल के नाम से इनका नाम गोगाजी पड़ा।